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मौके की एहमियत

मन की बात
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“पता नहीं कहाँ मर गया, बोल भी था उस हरामखोर से कि आज विशेष दिन है, वक़्त पे आए, कोना-कोना साफ़ होगा तभी तो सजावट में मज़ा आएगा । ये छोटे लोग क्या समझेंगे ऐसे मौको की एहमियत। यू.एस. में ही अच्छा था, सब काम तरीके से होता था, हर छोटा बड़ा इस दिन की तैयारी में लग जाता था, पर यहाँ इन छोटे लोगो की कामचोरी और चापलूसी ने बर्बाद कर रखा है सब कुछ।” अकेले कमरे में बैठे साहब खुद से ही बडबडाते हैं ।

इतने में ही दरवाज़े पे दस्तक होती है, खोलते सामने खड़ा एक छोटा व्यक्ति जिसका बेसब्री से इंतज़ार हो रहा था। कुछ दस बारह बरस की उम्र रही होगी। रंग का साफ़ था पर धूल की परत ने उसकी कोमल काया को कुछ मटमैला सा कर दिया था। बाल धूप में पक कर रूखे हो गए थे और सर्दी की वजह से नाक से लगातार पानी रिस रहा था । डरा हुआ सहमा सा “मोनू” अपने साहब का चेहरा पढके ये जान चुका था कि उससे भारी गलती हो गयी है पर फिर भी एक बार वो अपनी देरी के लिए सफाई देने की कोशिश करता है।
” साहब, ज़ुकाम की दवा लेने अस्पताल गया था पर डॉक्टर साहब काफी देर से आये और जांचने पे बोले कि मुझे बुखार है और हाथ में नया परचा थमा दिया, नयी दवाई की लाइन में लगने से देर हो गयी साहब ।”
” साले इतना सा है और झूठ बड़ो से भी ज्यादा सफाई से बोलता है । और अगर सच भी बोल रहा है तो क्या तेरी दवाई एक दिन और रुक नहीं सकती थी, एक दिन में कौन सा मर जाता। पता है आज कितने बड़े बड़े लोग आने वाले हैं, चल अब काम कर जल्दी जल्दी ।” साहब डांटते हुए बोले।
पहले से ही डरा हुआ मोनू कुछ और सहम जाता है, पर कुछ ही क्षण में उसके साहब की डांट उसके बाल मन के विराट सागर में कहाँ घुल जाती है पता ही नहीं चलता ।

वैसे तो स्टेशन के बाहर बूट पोलिश का काम छोड़े और इस घर के काम को पकड़े तीन महीने हो चुके हैं पर आज झाड़ू लगाते मोनू की आँखे मानो घर में कुछ खोज रही हैं । इससे पहले किसी और की तरह ही उसका घर भी उसका बाप चलाता था । वह पटाखों की फैक्ट्री में मजदूर था । आज से चार महीने पहले जब दिवाली की तैयारियां हो रही थी उसके बाप वाली फैक्ट्री में आग लग गयी । हादसे में मारे जाने वाले तीन मजदूरों में से एक उसका बाप भी था । बीस हज़ार रुपये का मुआवज़ा दिया था सरकार ने उसे भी, पर सरकारी बाबू कहते हैं कि उसका हक़ साबित करने के लिए उसके पास ज़रूरी कागज़ नहीं हैं । इतनी सरकारी चोचलेबाजी समझने के लिए मोनू अभी काफी छोटा था । मदद के लिए उसके पास माँ का असरा भी नहीं था। उसका बाप कहता था कि वह उसको पैदा करने के कुछ महीने बाद ही उन्हें छोड़ कर बहुत दूर चली गयी थी। कितनी दूर गयी ये उसके बाप ने नहीं बताया था।

“झाड़ू पकड़ के खड़े रहने के पैसे नहीं मिलते हैं तुझे ।” एकाएक साहब की कर्कश आवाज़ मोनू को खयालों की दुनिया से बाहर ले आती है।
रोज़ाना की तरह, झाड़ू लगाने के बाद मोनू किचन के सामने ठन्डे फ़र्श पर बैठ जाता है।
“आज कोई चाय-नाश्ता नहीं मिलेगा। मैडम घर पर नहीं हैं आज ।”
मोनू का चेहरा काफी उदास हो उठता है । पर ये उदासी सिर्फ चाय न मिलने की नहीं है। दरअसल आज मैडम ने मोनू को गरम कपड़े देने का वादा किया था । जिन कपड़ो की उसे काफी समय से ज़रूरत थी क्यूंकि ठण्ड काफी दिनों से पड़ रही थी । वैसे तो कपडे भी मैडम ने एक महिना पहले ही निकाल के रख दिए थे पर उनको देने के लिए शायद आज का ही मुहूर्त तय था। वो अलग बात है कि अगर कपड़े पहले मिल जाते तो उसे शायद आज ज़ुकाम और बुखार न होता, पर क्या फर्क पड़ता है, कपड़े तो आज भी नहीं मिले । पोंछा लगाता मोनू कुछ हिम्मत जुटा के, सामने हाथो में जाम लिए अपने साहब से पूछता है, “मैडम कहाँ गयी साहब ? ”
“वो अपने दोस्तों को बुलाने के लिए गयी है, शाम के लिए ।” जाम गटकते हुए साहब कहते हैं ।
“आज कुछ ख़ास है क्या साहब ?” मोनू फिर पूछता है ।
” आज न्यू इयर पार्टी है, चल ज़्यादा दिमाग नहीं खा अब मेरा, जल्दी से साफ़ कर।” दूसरा जाम भरते हुए साहब गुस्साते हैं ।
मोनू को पूरी बात तो समझ में नहीं आ पाई पर आधी ही समझ वो फिर अपने काम पर लग जाता है। नशे में धुत साहब से ज्यादा सवाल करना सही नहीं । अभी तीन हफ्ते पहले ही ठन्डे के जगह सादा पानी ला देने की वजह से बहुत मार पड़ी थी । साहब के कहे हिसाब से मोनू पूरा घर चमका देता है ।

मोनू मन ही मन खुद से बातें करता है, “आज कुछ तो ख़ास है । अरे हाँ, साहब के जन्मदिन पे भी तो यही सब हो रहा था । मैडम अपने दोस्तों को बुलाने गयी थी, घर की ख़ास सफाई हुई थी । आज शायद फिर से साहब का जन्मदिन है ।”
“साहब सारा काम कर दिया, मैं जाऊं ? ”
” हाँ जा और शाम को आ जाना, काम रहेगा ।”
” ठीक है साहब । ”
” और सुन नहा के ज़रूर आना । ”
” जी साहब ।” ठण्ड में बुखार होने के बावजूद नहाने का सोचकर वह थोड़ा हल्की आवाज़ में बोलता है पर एक बात तो मोनू के मन में साफ़ हो गयी थी कि आज फिर से उसके साहब का जन्मदिन ही है । अब ठण्ड हो, बुखार हो या कुछ भी हो नहाना तो उसे पड़ेगा । घर जाते हुए उसकी छोटी पर जिज्ञासु आँखें, रस्ते में पड़ने वाली दुकानों पर पड़ती हैं। सब का सब बिलकुल वैसा लग रहा है जैसे मानो दिवाली हो। पर दिवाली का और उसका तो बचपन का नाता है, वह इतना तो जनता है कि दिवाली इतनी जल्दी और इतनी ठण्ड में तो नहीं आती । एक बार फिर अपनी ही बनाई पहेलियों को सुलझाते हुए मोनू की आँखें सामने चमचमाती होटल के बिल्डिंग पर पड़ती है। यहीं तो उसका पड़ोसी, यासिर, गार्ड की नौकरी करता है । लगता है यहाँ भी कोई कार्यक्रम है । अपने सवालो का पिटारा लिए मोनू, यासिर के पास आ धमकता है।
“यासिर चाचा आज कोई त्यौहार है क्या ?”
“हाँ, आज न्यू इयर की रात है । अब जा मेरे बाप काम करने दे ।”
दिन में दूसरी बार कान में पड़ने के बाद “न्यू इयर” शब्द ने उसके दिमाग में अपनी छाप बना ली थी ।
” नू इयर, अच्छा, चाचा ये मुसलमानों का त्यौहार है क्या ?” मोनू थोडा रुक कर कहता है, “पर साहब तो हिन्दू ही है। ”
” अरे सबका त्यौहार है। तू जाता है कि नहीं।” यासिर झिल्लाकर कहता है ।
अभी भी आधी ही बात समझ कर मोनू घर को चल देता है ।

हाड़ कंपा देने वाली सर्दी में ज़ुकाम और बुखार से ग्रस्त मोनू अपने साहब के निर्देशानुसार नहा के साहब के घर को निकल पड़ता है । घर पहुँच के देखता है की दस पंद्रह लोग घर को दुल्हन की तरह सजा रहे होते हैं । अपने साहब को ढूँढता हुआ वह अपनी मैडम जी के पास पहुँच जाता है। मैडम बताती हैं कि जैसे मालिक के जन्मदिन पर सब मेहमानों को पानी परोसा था आज भी बिलकुल वैसे ही करना । मेहमानों का इंतज़ार करता मोनू एक कोने में बैठ जाता है । कुछ अँधेरा होते ही घर जगमगा उठता है और मेहमानों के आने का सिलसिला शुरू हो उठता है। देखते ही देखते घर के बाहर बड़ी बड़ी गाडियों का जमघट लग जाता है । अमीर अमीर लोग और उनके चमकते दमकते बच्चे, जिनके सामने नन्हा सा मोनू किसी और ही देश का प्राणी लगता है, घर में प्रवेश करते हैं । मोनू के साहब उसे बुलाते हैं ।
” सुन वो जो बड़ा गुलदस्ता है, वो उन साहब को देना है ।”
” वो साहब जो चश्मा लगाये हैं ?”
” हाँ उन्ही को, और सुन गुलदस्ता देते वक़्त नमस्ते भी कहना। समझ गया ना ?”
” जी साहब ।”
मोनू एक आदर्श नौकर की तरह बिलकुल वैसे ही कर देता है जैसा उससे कहा गया होता है। कार्यक्रम चल पड़ता है । अपने हलके हाथों में भारी पानी के ग्लास से लदी हुई प्लेट लिए मोनू किचन से हॉल तक के कई चक्कर लगाता रहता है । एक और बार किचन से पानी भर के वापस हॉल में आता है तो देखता है कि सब बाहर बगीचे में आ गए हैं और गले मिल रहे हैं । इतनी देर से सब एक दुसरे के साथ थे तब तो सब सिर्फ हाथ मिला रहे थे, अचानक से गले मिलने का कारण भी मोनू के दिमाग से परे था ।
वह भी चोखट पे खड़ा हो यह सब देखने लगता है । सब एक दुसरे से “हैप्पी नू इयर – हैप्पी नू इयर ” कह रहे हैं । बाहर आसमान भी रंगीन पटाखों से भर गया । बगीचे में भी साहब पटाखे चलाने लगते हैं । आकाश में जाती आतिशबाजी को देख सब बहुत खुश हो रहें हैं और वो चमकते दमकते बच्चे तो मानो झूम उठे हों । सबको पटाखों से खुश होता देख मोनू का मन भी प्रफुल्लित हो उठता है, और वह सोचता है कि बापू ने भी शायद इनमे से कोई न कोई पटाखे ज़रूर बनाये होंगे । बापू की मेहनत की वजह से आज कितने बड़े बड़े साहब लोग और उनके बच्चों के चेहरों पर ख़ुशी है। अपने बाप को याद करता हुआ मोनू अभी अपने आप को किसी शहीद के बेटे से कम नहीं समझ रहा था ।

“इधर आओ !”, मैडम मोनू को सबके बीच बुलाती हैं ।
सारे मेहमानों की निगाहें मोनू पे टिक जाती हैं । मैडम आगे कहती हैं, “इस न्यू इयर पर हमे कुछ नया करना चाहिए । जैसे किसी गरीब कि मदद करनी चाहिए, उनकी ज़रूरतों को पूरा करना चाहिए ।” मोनू की तरफ इशारा करते हुए वो कहती हैं, “इस लड़के का दुनिया में कोई नहीं है, ये बच्चा बहुत गरीब है, इसके पास ढंग के कपड़े तक नहीं हैं । इस न्यू इयर पे, अपने पहले नेक काम के तौर पर, मैं इसे दो कम्बल और तीन स्वेटर दान कर रही हूँ । आप सबको ये बताते हुए मुझे बहुत ख़ुशी हो रही है।”
ये सुनते ही मोनू का चेहरा ख़ुशी से खिल उठता है। अब उसे समझ आता है कि दरसल कपड़े देने का समय ये था । पूरा बगीचा मैडम की तारीफें करता हुआ तालियों से गूँज उठता है । इतने में ही, जिस साहब को मोनू ने गुल्दास्ता भेंट किया था, वे भी फट से एक हज़ार रुपये का नोट निकाल मोनू को थमा कर कहते हैं, ” बिलकुल ठीक कहा आपने मिसिज़ खन्ना, हम सबको ही ऐसे नेक काम करना चाहिए । मुझे ख़ुशी है कि हमारी सोसाइटी में आप जैसे मसीहा रहते हैं जो इन असहाय लोगों की परवाह करते हैं । सोसाइटी का प्रेजिडेंट होने के नाते, मैं आपको सोसिसटी का नया सेक्रेटरी नियुक्त करता हूँ ।” सुनते ही मोनू के साहब और मैडम इस कदर खुश हो जाते हैं कि मानो बहुत परिश्रम के बाद कोई खज़ाना हाथ लग गया हो । शायद लग भी गया हो पर मोनू के लिए तो निश्चित ही आज बहुत बड़ा खज़ाना उसके हाथ में था। उसका ध्यान उन साहब की बातों पे नहीं था और न ही अपने साहब और मैडम की बेहिसाब ख़ुशी पर था । वह तो बस अपने चहरे और अपने मुक़द्दर से भी बड़े उस नोट को निहार रहा था और मन ही मन प्रार्थना कर रहा था, ” हे भगवान्, ये नू इयर हर थोड़े दिन में मनता रहे ।”

शायद मोनू के साहब सही थे, ” ये छोटे लोग क्या समझेंगे ऐसे मौकों की एहमियत ।”

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